ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 17 शिशुम् जज्ञानम् हर्य तम् मृजन्ति शुम्भन्ति वहिन मरूतः गणेन। कविर्गीर्भि काव्येना कविर् सन्त् सोमः पवित्रम् अत्येति रेभन्।। अनुवाद - सर्व सृष्टी रचनहार (हर्य शिशुम्) सर्व कष्ट हरण पूर्ण परमात्मा मनुष्य के विलक्षण बच्चे के रूप में (जज्ञानम्) जान बूझ कर प्रकट होता है तथा अपने तत्वज्ञान को (तम्) उस समय (मृजन्ति) निर्मलता के साथ (शुम्भन्ति) उच्चारण करता है। (वुिः) प्रभु प्राप्ति की लगी विरह अग्नि वाले (मरुतः) भक्त (गणेन) समूह के लिए (काव्येना) कविताओं द्वारा कवित्व से (पवित्रम् अत्येति) अत्यधिक निर्मलता के साथ (कविर् गीर्भि) कविर् वाणी अर्थात् कबीर वाणी द्वारा (रेभन्) ऊंचे स्वर से सम्बोधन करके बोलता है, हुआ वर्णन करता (कविर् सन्त् सोमः) वह अमर पुरुष अर्थात् सतपुरुष ही संत अर्थात् ऋषि रूप में स्वयं कविर्देव ही होता है। परन्तु उस परमात्मा को न पहचान कर कवि कहने